वो दौर कुछ और था ये दौर कुछ और है
मौत तक दांव पर लगा जाते थे लोग इश्क में फिर भी प्यार नसीब ना होता था
मीरा चाहती रह गई थी कृष्ण को
कृष्ण चाहते रह गए राधा को
मगर यहां अब तो चंद अल्फाजो के आड़ में फरेबी इश्क़ के दामन को बिस्तर की सेज तक ले जाते है
अपनी हवस को मोहब्बत का नाम दे आते है
और जब बात आ जाए वफा की तो बड़े ही शरीफ बने नजर आते है

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